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भरतपुर में गोवर्धन परिक्रमा की तैयारी जोरों पर…

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लाखों श्रद्धालु गुरु पूर्णिमा के अवसर पर गोवर्धन की परिक्रमा के लिए आते हैं। इस 21 किलोमीटर की परिक्रमा का एक हिस्सा भरतपुर जिले में पड़ता है। गुरु पूर्णिमा के मेले का आयोजन 27 जून से 4 जुलाई तक होगा।

गोवर्धन परिक्रमा : आषाढ़ मास की पूर्णिमा, जिसे हिंदू धर्म में गुरु पूर्णिमा, मुडिया पूर्णिमा और व्यास पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है, बहुत महत्वपूर्ण होती है। इस बार गुरु पूर्णिमा 3 जुलाई को मनाई जाएगी। इस अवसर पर, लाखों श्रद्धालु गोवर्धन की 21 किलोमीटर की परिक्रमा करने आते हैं। इस परिक्रमा का एक हिस्सा भरतपुर जिले की डीग तहसील में भी स्थित है। इस वर्ष, गुरु पूर्णिमा के मौके पर, गोवर्धन लखी मेला 27 जून से शुरू होगा और 4 जुलाई तक चलेगा।

डीग के विशेषाधिकारी ने लिया तैयारियों का जायजा

राजस्थान की कांग्रेस सरकार ने राजस्थान में नए जिलों की स्थापना की घोषणा की है, जिसमें डीग को एक नया जिला बनाने की भी घोषणा की गई है। डीग में तैयारियों के मद्देनजर विशेषाधिकारी आईएएस शरद मेहरा ने परिक्रमा मार्ग का निरीक्षण किया और ब्लॉक स्तरीय अधिकारियों के साथ बैठक की जहां राजस्थान के पूंछरी क्षेत्र में गुरु पूर्णिमा के दौरान आयोजित होने वाले लक्खी मेले की व्यवस्थाओं के बारे में निर्देश दिए गए। विशेषाधिकारी आईएएस मेहरा ने अधिकारियों को यह समझाया कि परिक्रमा के लिए दूरदराज से लाखों की संख्या में श्रद्धालु आएंगे, और उन्हें यह ध्यान में रखना चाहिए कि वे राजस्थान में परिक्रमा कर रहे हैं। उन्होंने अधिकारियों को साफ सफाई, 24 घंटे बिजली और पानी की उचित व्यवस्था करने के निर्देश दिए।

मुड़िया पूर्णिमा की कैसे हुई शुरुआत

आषाढ़ मास की पूर्णिमा को ‘मुडिया पूर्णिमा’ नाम से भी जाना जाता है। धार्मिक मान्यता के अनुसार, पश्चिम बंगाल के मालदा जिले के गांव रामकेली में रहने वाले सनातन गोस्वामी सनातन धर्म के मंत्री के रूप में राजा हुसैन शाह के पास कार्य करते थे। सनातन गोस्वामी चैतन्य महाप्रभु से प्रभावित होकर उनसे मिलने के लिए वाराणसी पहुंचे। चैतन्य महाप्रभु की प्रेरणा से सनातन गोस्वामी ब्रज में आकर भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में लग गए। सनातन गोस्वामी रोजाना वृंदावन से आकर गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा करते थे।

मान्यता है कि जब सनातन गोस्वामी बुढ़े हो गए, तो भगवान ने उन्हें दर्शन देकर एक शिला को ले जाने और उसकी परिक्रमा करने को कहा था। कहा जाता है कि 1556 में सनातन गोस्वामी की मृत्यु हो गई थी, और उसके बाद गौड़ीय संतों और ब्रजवासियों ने सिर मुढ़वाकर उनके पार्थिव शरीर के साथ सात कोस की गोवर्धन परिक्रमा की थी। उसी दिन से गुरु पूर्णिमा को ‘मुडिया पूर्णिमा’ के नाम से जाना जाता है। आज भी उसी परंपरा के अनुसार गौड़ीय संत और श्रद्धालु अपना सिर मुड़वाकर मानसी गंगा की परिक्रमा करते हैं और इसी के साथ गोवर्धन मेला समाप्त होता है।

गोवर्धन पर्वत को लेकर क्या है मान्यता

हिन्दू धर्म में गोवर्धन पर्वत की विशेष आस्था है। धार्मिक कथाओं के अनुसार, श्रीकृष्ण ने इंद्रदेव की पूजा को बंद करवाया और गोवर्धन पर्वत की पूजा शुरू करवाई। इसके बाद इंद्रदेव नाराज हो गए और ब्रज क्षेत्र को नष्ट करने के लिए मूसलाधार बरसात की। श्रीकृष्ण ने अपनी कनिष्का अंगुली पर गोवर्धन पर्वत को उठाकर ब्रज क्षेत्र में रहने वालों को पर्वत के नीचे छिपा लिया और बरसात की एक बूंद भी उन्हें प्रभावित नहीं कर पाई। इसके बाद इंद्रदेव श्रीकृष्ण की शरणागत हो गए और उनकी पूजा की। गोवर्धन पर्वत को श्रीकृष्ण ने अपना स्वरूप बताया है। इसी कारण से हिन्दू धर्म में गोवर्धन पूजा और परिक्रमा का विशेष महत्व है।

परीक्रमा और मेले से लोगों को मिलता है रोजगार 

गोवर्धन मेले के दौरान भंडारों का आयोजन करने वाले लोगों को काफी आर्थिक लाभ प्राप्त होता है। इस मेले में लाखों लोग भंडारों का दौरा करते हैं और वहां प्रसाद, फूल माला, चाय, दूध, पार्किंग और अन्य चीजों की दुकानें स्थापित करते हैं। इससे वहां कई लोगों को अच्छा रोजगार मिलता है और उन्हें आर्थिक सहायता मिलती है।

गोवर्धन मेले में ग्रामीण क्षेत्रों से आने वाले रिक्शा चालक, रेलवे, रोडवेज, डग्गेमार वाहन चालक और अन्य लोग बड़ी संख्या में रोजगार पाते हैं। इसके साथ ही, दूध की दुकानें, चाय की दुकानें, फूल माला और प्रसाद बेचने वाले व्यापारी भी इस मेले में उच्च मुनाफे कमाते हैं। इस तरह गोवर्धन मेले अपने आस-पास के क्षेत्रों में लोगों को रोजगार के अवसर प्रदान करते हैं और उनकी आर्थिक स्थिति को सुधारते हैं।

क्यों मनाई जाती है गुरु पूर्णिमा 

भारत में गुरु पूर्णिमा का आयोजन विशेष आदर और भक्ति के साथ किया जाता है. इस पर्व के दिन श्रद्धालुओं द्वारा उनके गुरुओं की पूजा और सम्मान किए जाते हैं. इसके साथ ही, आषाढ़ मास की पूर्णिमा के अवसर पर ऋषि व्यास की पूजा भी मनाई जाती है, जिन्हें चारों वेदों के प्रथम व्याख्याता के रूप में माना जाता है। इस पर्व के माध्यम से, लोग अपने गुरुओं को आदर्श और स्मृति में रखने का संकल्प लेते हैं।

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