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धर्म परिवर्तन के मामले पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई…

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जस्टिस पंकज मिथल और जस्टिस आर. महादेवन ने मद्रास हाईकोर्ट के 24 जनवरी के फैसले को सही ठहराते हुए उस निर्णय को बरकरार रखा, जिसमें ईसाई धर्म अपनाने वाली एक महिला को अनुसूचित जाति का प्रमाण पत्र देने से इनकार कर दिया गया था।

सुप्रीम कोर्ट ने धर्म परिवर्तन के मामले में एक महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा है कि केवल आरक्षण का लाभ पाने के लिए धर्म परिवर्तन करना संविधान के साथ धोखाधड़ी के समान है। यह टिप्पणी एक मामले में की गई, जिसमें एक ईसाई लड़की ने अनुसूचित जाति का प्रमाण पत्र पाने के लिए खुद को हिंदू बताया था।

याचिकाकर्ता सी. सेल्वरानी का जन्म ईसाई परिवार में हुआ था, जबकि उनके पिता पहले हिंदू थे और वल्लुवन जाति से संबंधित थे, जो अनुसूचित जाति में आती है। बाद में उनके पिता ने ईसाई धर्म अपना लिया, और लड़की भी ईसाई धर्म का पालन करती रही, जैसा कि गिरजाघर जाने के प्रमाण से पता चलता है।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ईसाई धर्म अपनाने के बाद व्यक्ति अपनी जातिगत पहचान खो देता है और अनुसूचित जाति के लाभ के लिए पुनः हिंदू धर्म में धर्मांतरण के साथ अपनी मूल जाति द्वारा स्वीकार किए जाने का ठोस प्रमाण देना आवश्यक है। कोर्ट ने यह भी कहा कि याचिकाकर्ता के पुनः धर्मांतरण या उसकी मूल जाति द्वारा उसे स्वीकार करने का कोई ठोस सबूत नहीं है, जिससे उसका दावा अस्वीकार्य हो जाता है।

जस्टिस पंकज मिथल और जस्टिस आर. महादेवन की पीठ ने 26 नवंबर को सी. सेल्वरानी की याचिका पर फैसला सुनाते हुए मद्रास हाईकोर्ट के 24 जनवरी के फैसले को बरकरार रखा। इस फैसले में ईसाई धर्म अपनाने वाली महिला को अनुसूचित जाति प्रमाण पत्र देने से इनकार किया गया था।

जस्टिस महादेवन ने पीठ के लिए 21 पृष्ठों का फैसला लिखा, जिसमें उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि धर्म परिवर्तन केवल तभी मान्य हो सकता है, जब वह व्यक्ति वास्तव में उस धर्म के सिद्धांतों और आध्यात्मिक विचारों से प्रेरित हो।

उन्होंने कहा, “यदि धर्म परिवर्तन का मुख्य उद्देश्य दूसरे धर्म में आस्था के बजाय केवल आरक्षण का लाभ प्राप्त करना है, तो इसे अनुमति नहीं दी जा सकती। ऐसी मंशा रखने वाले लोगों को आरक्षण का लाभ देने से आरक्षण नीति के सामाजिक उद्देश्य को नुकसान पहुंचेगा।”

पीठ ने प्रस्तुत साक्ष्यों के आधार पर कहा कि याचिकाकर्ता ईसाई धर्म का पालन करती रही है, जैसा कि उसके चर्च में नियमित उपस्थिति से सिद्ध होता है। इसके बावजूद वह नौकरी के लिए अनुसूचित जाति प्रमाण पत्र प्राप्त करने के लिए खुद को हिंदू बताने का दावा कर रही है, जो अस्वीकार्य है।

बेंच ने कहा कि इस तरह का दोहरा दावा अस्वीकार्य है और वह ईसाई धर्म अपनाने के बावजूद एक हिंदू के रूप में अपनी पहचान बनाए नहीं रख सकती हैं. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि महिला ईसाई धर्म में आस्था रखती है और सिर्फ नौकरी में आरक्षण का लाभ उठाने के उद्देश्य से वह हिंदुत्व का अब तक पालन करने का दावा करती है. ऐसे में महिला को अनुसूचित जाति का दर्जा प्रदान करना आरक्षण के मूल उद्देश्य के खिलाफ होगा और संविधान के साथ धोखाधड़ी होगी.

सुप्रीम कोर्ट ने रेखांकित किया कि केवल आरक्षण का लाभ पाने के लिए अपनाए गए धर्म में वास्तविक आस्था के बिना धर्म परिवर्तन करना आरक्षण नीति के मौलिक सामाजिक उद्देश्यों को कमजोर करता है और महिला का कार्य हाशिये पर पड़े समुदायों के उत्थान के उद्देश्य से आरक्षण नीतियों की भावना के विपरीत है. हिंदू पिता और ईसाई माता की संतान सेल्वरानी को जन्म के कुछ समय बाद ही ईसाई धर्म की दीक्षा दी गई थी, लेकिन बाद में उन्होंने हिंदू होने का दावा किया और 2015 में पुडुचेरी में उच्च श्रेणी लिपिक के पद पर आवेदन करने के लिए अनुसूचित जाति प्रमाण-पत्र मांगा.

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